Quick Summary
दल बदल कानून क्या है? लोग अपने छोटे बड़े समस्या को सीधे सरकार को नहीं बता पाती है, जिसे सुनने के लिए हर क्षेत्र में एक नेता होता है। लोग नेता व उन्हें राजनीतिक पार्टी को ध्यान में रखकर अपना उम्मीदवार चुनते हैं। लेकिन कई बार नेता पैसे और बड़े पोजीशन के लालच में आकर अपनी पार्टी बदल लेते हैं, जो एक तरह से जनता के साथ नइंसाफी होता है।
दल बदल कानून (Anti-Defection Law) भारत का एक महत्वपूर्ण कानून है जो विधायकों और सांसदों द्वारा दल बदलने (राजनीतिक पार्टी बदलने) को रोकने के लिए बनाया गया है।
इस नइंसाफी को दूर करने के लिए दलबदल विरोधी कानून को लाया गया। यहाँ हम लोकतंत्र में दल बदल कानून का क्या महत्व है और दल-बदल कानून किस पर लागू होता है, दल बदल विरोधी कानून किस संविधान संशोधन से संबंधित है इस बारे में विस्तार से बता रहे हैं।
दल बदल कानून, जिसे दलबदल विरोधी कानून भी कहा जाता है, भारतीय संविधान का एक भाग है जो निर्वाचित विधायकों और सांसदों को पार्टी बदलने से रोकता है. यह कानून भारत में राजनीति में “दलबदल” या पार्टी बदलने की प्रथा को रोकने के लिए बनाया गया था |
भारत में दलबदल विरोधी कानून को इसलिए लाया गया था ताकि निर्वाचित प्रतिनिधियों द्वारा केवल व्यक्तिगत लाभ के लिए या राजनीतिक अवसरवाद के कारण राजनीतिक दल बदलने की समस्या को रोका जा सके, जिससे सरकारें अस्थिर हो सकती हैं और लोकतांत्रिक सिद्धांतों से समझौता हो सकता है। 52वें संशोधन अधिनियम, 1985 के माध्यम से अधिनियमित इस कानून का उद्देश्य सांसदों के बीच अनुशासन लागू करना और यह सुनिश्चित करना है कि वे मतदाताओं द्वारा उन्हें दिए गए जनादेश का उल्लंघन न करें।
विधायक/सांसद की अयोग्यता का फैसला स्पीकर (विधानसभा) या चेयरमैन (राज्यसभा/लोकसभा) लेते हैं।
भारत में दलबदल विरोधी कानून, संविधान की दसवीं अनुसूची में निहित है, जिसमें दलबदल को रोकने और राजनीतिक दलों और सरकारों की स्थिरता बनाए रखने के उद्देश्य से कई प्रमुख प्रावधान हैं। यहाँ मुख्य प्रावधान दिए गए हैं:
भारत में संवैधानिक संशोधन संविधान के अनुच्छेद 368 द्वारा शासित होते हैं और कानूनी और शासन ढांचे को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। मुख्य पहलुओं में शामिल हैं:
दलबदल विरोधी कानून के अपवाद विशिष्ट परिदृश्य प्रदान करते हैं, जहाँ दलबदल से अयोग्यता नहीं होती। इनमें शामिल हैं:
भारत में दलबदल विरोधी कानून का प्राथमिक उद्देश्य, जो संविधान की दसवीं अनुसूची में निहित है, संसदीय प्रणाली के भीतर राजनीतिक स्थिरता को बनाए रखना है। साथ ही राजनीतिक स्थिरता सुनिश्चित करने के अलावा, दलबदल विरोधी कानून का उद्देश्य लोकतांत्रिक प्रक्रिया में जनता के विश्वास को बनाए रखना है।
भारत में दलबदल विरोधी कानून मुख्य रूप से 1985 के 52वें संविधान संशोधन अधिनियम से जुड़ा है। इस संशोधन ने संविधान में दसवीं अनुसूची पेश की, जो दलबदल के आधार पर संसद (सांसदों) और राज्य विधानसभाओं (विधायकों) के निर्वाचित सदस्यों की अयोग्यता से संबंधित प्रावधान निर्धारित करती है।
52वें संविधान संशोधन के मुख्य पहलू:
2003 का 91वाँ संविधान संशोधन अधिनियम दलबदल विरोधी कानून के लिए भी प्रासंगिक है। हालाँकि, यह मुख्य रूप से मतदान की आयु को 21 वर्ष से घटाकर 18 वर्ष करने के मुद्दे के बारे में है। इस संशोधन ने दलबदल से संबंधित दसवीं अनुसूची के प्रावधानों को सीधे संशोधित नहीं किया।
91वें संविधान संशोधन के मुख्य पहलू:
दलबदल विरोधी कानून विशेष रूप से इस संदर्भ में नियुक्ति की शर्तों को संबोधित नहीं करता है कि कौन सांसद या विधायक बन सकता है। हालाँकि, यह निर्वाचित प्रतिनिधियों के पद ग्रहण करने के बाद उनके आचरण को नियंत्रित करता है।
दलबदल विरोधी कानून के लिए लाभ और चुनौतियाँ है, जिनके बारे में आगे विस्तार से जानेंगे।
| लाभ | चुनौतियाँ |
|---|---|
| दलबदल विरोधी कानून से पार्टियों के बीच स्थिरता बनी रहती है, जिससे चुनावी राजनीति में निरंतरता बनी रहती है। | यह कानून कई बार नेताओं की स्वतंत्रता को सीमित कर सकता है, क्योंकि उन्हें अपनी पार्टी बदलने का अधिकार नहीं होता। |
| यह कानून नेताओं को पार्टी बदलने से रोकता है, जिससे भ्रष्टाचार और अनुशासनहीनता पर नियंत्रण रहता है। | गठबंधन सरकारों में यह कानून लागू करना मुश्किल हो सकता है, क्योंकि छोटे दलों के नेताओं को अपनी स्थिति बनाए रखने के लिए दलबदल की संभावना रहती है। |
| दलबदल के खिलाफ सख्त नियम, विधायिका में पारदर्शिता बनाए रखते हैं, जिससे जनता का विश्वास बढ़ता है। | यह कानून नेताओं की व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर असर डाल सकता है, क्योंकि उन्हें अपनी इच्छानुसार पार्टी बदलने का अधिकार नहीं होता। |
| यह कानून पार्टियों को आदर्श और अपने सिद्धांतों के प्रति प्रतिबद्ध रहने के लिए प्रेरित करता है। | कानून को लेकर कई बार न्यायालयों में विवाद उठते हैं, और इसकी व्याख्या और कार्यान्वयन में कठिनाइयाँ होती हैं। |
| यह कानून राजनीतिक नेताओं को व्यक्तिगत लाभ के लिए दल बदलने से रोकता है। | दलबदल विरोधी कानून के चलते कई बार नेताओं और समर्थकों में असंतोष पैदा होता है, जो चुनावी प्रदर्शन में असर डाल सकता है। |
भारत में 1985 के दलबदल विरोधी कानून (Anti-Defection Law) के अंतर्गत सांसदों और विधायकों की अयोग्यता के लिए कुछ स्पष्ट मानदंड निर्धारित किए गए हैं। यह कानून भारतीय संविधान के 52वें संशोधन के तहत लागू किया गया था, जिसका उद्देश्य जनप्रतिनिधियों के द्वारा अनुशासनहीन दल-परिवर्तन को रोकना है।
दलबदल के मामलों में अयोग्यता पर अंतिम निर्णय संबंधित सदन के अध्यक्ष (लोकसभा में) या सभापति (राज्यसभा में) द्वारा लिया जाता है।
हालांकि, सुप्रीम कोर्ट के अनुसार, इस निर्णय को न्यायिक समीक्षा के अंतर्गत उच्च न्यायपालिका में चुनौती दी जा सकती है।
दल बदल कानून का एक अहम पक्ष यह है कि यह अक्सर सांसदों और विधायकों की “विवेक आधारित स्वतंत्रता” और “दलीय अनुशासन” के बीच टकराव खड़ा करता है।
इस कानून के अंतर्गत कोई भी सांसद/विधायक यदि अपनी पार्टी के निर्देश के विरुद्ध विधानसभा या संसद में वोट करता है, तो उसे दल बदल की श्रेणी में रखा जा सकता है—even अगर वह अपने क्षेत्र के हित में या अंतरात्मा की आवाज़ पर ऐसा करता है।
इससे “स्वतंत्र बहस” की संस्कृति को नुकसान पहुँचता है और निर्वाचित प्रतिनिधि सिर्फ पार्टी के आदेशपालक बनकर रह जाते हैं।
लोकतंत्र में जनप्रतिनिधियों की भूमिका जनहित में निर्णय लेना है, लेकिन यह कानून उन्हें दलीय रेखा से बाहर सोचने पर दंडित कर सकता है।
“दलीय दिशा का उल्लंघन = दल बदल, लेकिन सजग सोच या तर्क की स्वतंत्रता सीमित हो जाती है।”
भारत में दलबदल विरोधी कानून, जिसे 1985 के 52वें संविधान संशोधन अधिनियम के माध्यम से पेश किया गया था, राजनीतिक स्थिरता को बनाए रखने, पार्टी अनुशासन को बढ़ावा देने और लोकतांत्रिक प्रक्रिया की अखंडता की रक्षा करने के लिए एक महत्वपूर्ण तंत्र के रूप में कार्य करता है। निर्वाचित प्रतिनिधियों को बिना वैध कारणों के दलबदल करने या पार्टी के निर्देशों की अवहेलना करने से हतोत्साहित करके, कानून का उद्देश्य शासन में निरंतरता सुनिश्चित करना और मतदाताओं द्वारा सौंपे गए चुनावी जनादेश की रक्षा करना है।
दल-बदल कानून एक ऐसा कानून है जो किसी राजनीतिक दल के चुने हुए प्रतिनिधि (विधायक या सांसद) को अपनी पार्टी छोड़कर दूसरी पार्टी में शामिल होने से रोकता है।
उद्देश्य: दल-बदल की समस्या से निपटने के लिए भारत में पहली बार 52वां संविधान संशोधन 1985 में किया गया था।
प्रावधान: इस संशोधन के माध्यम से दल-बदल विरोधी कानून बनाया गया। इस कानून के अनुसार, यदि कोई विधायक या सांसद अपनी पार्टी के विरुद्ध मतदान करता है या पार्टी से स्वेच्छा से अलग हो जाता है, तो उसे अयोग्य घोषित किया जा सकता है।
उद्देश्य: 52वें संशोधन में कुछ कमियां थीं, जिन्हें दूर करने के लिए 91वां संविधान संशोधन 2003 में किया गया।
प्रावधान: इस संशोधन ने दल-बदल के दायरे को और व्यापक बनाया और कुछ अपवादों को भी शामिल किया। जैसे, यदि किसी दल का विलय हो जाता है तो उसके सदस्य बिना अयोग्य हुए दूसरी पार्टी में शामिल हो सकते हैं।
पैराग्राफ 2.2 में कहा गया है कि कोई भी सदस्य, किसी निश्चित राजनीतिक दल के प्रतिनिधि के रूप में निर्वाचित होने के बाद, यदि चुनाव के बाद किसी अन्य राजनीतिक दल में शामिल हो जाता है तो उसे अयोग्य घोषित कर दिया जाएगा।
दलबदल शब्द का अर्थ किसी व्यक्ति या पार्टी द्वारा विद्रोह, असहमति और बगावत करना होता है। राजनीतिक परिदृश्य में यह एक ऐसी स्थिति होती है जब किसी राजनीतिक दल का सदस्य अपनी पार्टी छोड़कर दूसरी पार्टी से हाथ मिला लेता है।
इस कानून में कई बार देरी से निर्णय, राजनीतिक पक्षपात और न्यायिक हस्तक्षेप की ज़रूरत जैसे मुद्दे सामने आते हैं। इसलिए, कई विशेषज्ञों का मानना है कि इसे और पारदर्शी और निष्पक्ष बनाया जाना चाहिए।
Authored by, Aakriti Jain
Content Curator
Aakriti is a writer who finds joy in shaping ideas into words—whether it’s crafting engaging content or weaving stories that resonate. Writing has always been her way of expressing herself to the world. She loves exploring new topics, diving into research, and turning thoughts into something meaningful. For her, there’s something special about the right words coming together—and that’s what keeps her inspired.
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