Quick Summary
वर्ली आर्ट, महाराष्ट्र की आदिवासी जनजातियों द्वारा विकसित एक प्राचीन और समृद्ध कला है। यह अपनी सादगी और गहन भावनाओं के लिए जानी जाती है। यह कला मुख्य रूप से सफेद रंग का उपयोग करती है, जिसे लाल या भूरे रंग की मिट्टी की पृष्ठभूमि पर उकेरा जाता है। वारली चित्रकला में त्रिकोण, वृत्त और चौकोर आकृतियों का उपयोग होता है, जो जीवन के विभिन्न पहलुओं जैसे खेती, नृत्य, शिकार और धार्मिक अनुष्ठानों को दर्शाते हैं। यह कला न केवल ग्रामीण जीवन की झलक प्रस्तुत करती है, बल्कि प्रकृति और मानवता के बीच के संबंधों को भी उजागर करती है। वर्ली आर्ट की सरल रेखाएं और प्राकृतिक सामग्री इसे एक अनूठी और पर्यावरण के अनुकूल कला बनाती हैं।
वर्ली कला, जिसे आदिवासी वारली चित्रकला के नाम से भी जाना जाता है, महाराष्ट्र की वर्ली जनजाति द्वारा बनाई जाने वाली एक पारंपरिक लोक कला है। इस कला में मुख्य रूप से सफेद रंग का उपयोग किया जाता है, जिसे लाल या भूरे रंग की मिट्टी की पृष्ठभूमि पर उकेरा जाता है।
वारली चित्रकला महाराष्ट्र के आदिवासी अंचलों में विकसित हुई एक पारंपरिक कला है, जो वारली जनजाति के जीवन, परंपराओं और आस्थाओं की सजीव अभिव्यक्ति प्रस्तुत करती है।
वर्ली आर्ट जिसे आदिवासी वारली पेंटिंग या वारली चित्रकला भी कहा जाता है, महाराष्ट्र के आदिवासी समुदायों द्वारा बनाई जाने वाली पारंपरिक कला है। यह कला विशेष रूप से वर्ली जनजाति के लोगों द्वारा रची जाती है। इस कला में मुख्य रूप से सफेद रंग का उपयोग होता है, जिसे लाल या भूरे रंग की मिट्टी की पृष्ठभूमि पर बनाया जाता है। वर्ली पेंटिंग्स में ज्यादातर आकृतियों में त्रिकोण, गोलाकार और चौकोर आकार होते हैं, जो जीवन के विभिन्न पहलुओं को दर्शाते हैं जैसे कि खेती, नृत्य, शिकार और धार्मिक अनुष्ठान।
वर्ली कला का इतिहास बहुत पुराना और समृद्ध है। इसका इसिहास करीब 2500 से 3000 साल पहले का महाराष्ट्र के वर्ली जनजाति से जुड़ा हुआ बताया जाता है। इस कला का उपयोग मुख्य रूप से धार्मिक और सांस्कृतिक उत्सवों के दौरान किया जाता था।
प्रारंभ में, वर्ली कला को दीवारों और मिट्टी की सतहों पर चित्रित किया जाता था। आजकल, वर्ली आर्ट का उपयोग केवल दीवारों तक सीमित नहीं है; यह कपड़े, पेपर, और विभिन्न प्रकार के सजावटी वस्तुओं पर भी किया जाने लगा है। यह एक लोकप्रिय आर्ट फॉर्म के रूप में भी उभरी है, जिसे लोग घरों की सजावट के लिए भी अपनाते हैं। समय के साथ, वर्ली कला ने अपनी पहचान को बनाए रखा और आज भी इसे पूरे विश्व में सराहा जाता है।
वर्ली आर्ट की शुरुआत कब हुई, इसके बारे में सटीक जानकारी उपलब्ध नहीं है, लेकिन विशेषज्ञ और खोजकर्ताओं द्वारा अनुमान लगाया जाता है कि यह कला 10वीं शताब्दी ईसा पूर्व से भी पहले की है।
वारली कला, आदिवासी जीवन, प्रकृति, देवी-देवताओं और आत्माओं के प्रति उनके गहरे संबंध को दर्शाने के लिए शुरू की गई थी। शुरुआत में, उत्तरी महाराष्ट्र के इलाकों के लोग वारली कला को मिट्टी की दीवारों और घरों पर सफेद रंग से बनाया करते थें। धीरे धीरे लोगों के बीच वर्ली आर्ट की लोकप्रियता बढ़ने लगी और यह पूरे भारत में प्रचलित होने लगी।
वारली चित्रकला में अपना योगदान देने वालें, जिव्या सोमा माशे और उनके बेटे बालू माशे को “वारली चित्रकला जनक” माना जाता है। ठाणे जिले में रहने वाले जिव्या सोमा माशे (वारली चित्रकला जनक) ने 1970 के दशक में, इस कला को राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने वारली कला की सुंदरता और उसके सांस्कृतिक महत्व को दुनिया के सामने प्रस्तुत किया। उनकी मेहनत और समर्पण के कारण ही वारली चित्रकला आज एक विश्व प्रसिद्ध कला रूप बन गई है।
यह कला आदिवासी समुदाय की सामूहिक परंपरा का हिस्सा है, जिसे पीढ़ियों से सिखाया और आगे बढ़ाया गया है। हालांकि, इस कला को लोकप्रिय बनाने में कई और भी कलाकारों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है।
वर्ली कला मुख्य रूप से वार्ली जनजाति से जुड़ी हुई है, जो महाराष्ट्र के उत्तरी भाग में बसी हुई है। यह जनजाति मुख्यतः ठाणे और पालघर जिलों में निवास करती है।
महाराष्ट्र राज्य के अलावा, वर्ली जनजाति के लोग गुजरात एवं दादरा और नगर हवेली (भारत का केंद्र शासित प्रदेश) के कुछ हिस्सों में भी पाए जाते हैं और वहां भी इस वारली चित्रकला का काफी प्रचलन है।
ठाणे और पालघर जिलों के दीवारों पर, मंदिरों पर, स्कूलों पर, रेलवे और बस स्टैंड पर आपको वारली चित्रकला देखने को मिलेगी। यह ठाणे और पालघर जिलों को एक पर्यटन स्थल भी बनाती हैं। हालांकि, इस कला का अनोखा दृश्य आपको ठाणे और पालघर जिलों के अलावा विश्व भर के अन्य जगहों पर भी देखने को मिलेगा। वर्ली कला की पहचान उनके अनोखे और सरल चित्रण से होती है, जो उनके सांस्कृतिक और धार्मिक जीवन का हिस्सा है।
वारली चित्रकला में मुख्य रूप से चार प्रकार के चित्रण शामिल होते हैं, जो उनकी विविधता और विशेषता को दर्शाते हैं:
वर्ली आर्ट बनाना एक बहुत ही दिलचस्प प्रक्रिया है, जिसमें प्राकृतिक सामग्री और कुछ तकनीकों का उपयोग होता है।
वर्ली आर्ट में इस्तेमाल होने वाली सामग्रियों में मुख्य रूप से गेरू (लाल मिट्टी) या गोबर, चावल का पेस्ट या पिसे हुए चावल से बनाया गया सफेद रंग एवं प्राकृतिक रंग जैसे पीला, हरा और लाल सामिल होते हैं। जिनका इस्तेमाल करके आदिवासी वारली पेंटिंग का निर्माण होता है।
आदिवासी वारली पेंटिंग की तकनीक और शैली इसे एक अनोखा और आकर्षक आर्ट फॉर्म बनाती है। इसमें सरल ज्यामितीय आकृतियों और प्राकृतिक रंगों का उपयोग किया जाता है, जो इसे विशेष बनाता है।
आदिवासी वारली पेंटिंग पूरी तरह से कलाकार के रचनात्मकता अनुभव पर निर्भर करती है। वारली पेंटिंग में अत्यधिक आधुनिक पेंटिंग तकनीकों का इस्तेमाल नहीं किया जाता। ज्यादातर कलाकार अपने रचनात्मकता अनुभव और पहले से इस्तेमाल हो रही तकनीकों का ही इस्तेमाल करते हैं।
वारली पेंटिंग को समझने के लिए इसके आर्ट शैली को भी जानना काफी जरूरी है। आदिवासी वारली पेंटिंग में इस्तेमाल किए जाने वाली तकनीक और शैलियां निम्नलिखित हैं।
इस प्रकार, वर्ली कला की सादगी और प्राकृतिक सुंदरता इसे विशेष बनाती है। इसे बनाते समय वर्ली जनजाति के लोग अपनी संस्कृति और परंपराओं को चित्रित करते हैं, जिससे यह कला और भी महत्वपूर्ण हो जाती है।
वारली कला महाराष्ट्र की एक पारंपरिक आदिवासी चित्रकला है, जिसकी जड़ें प्रकृति और जीवन की सरल गतिविधियों से जुड़ी हैं। इसकी प्रमुख विशेषताएं निम्नलिखित हैं:
वारली चित्रकला न केवल एक कलात्मक अभिव्यक्ति है, बल्कि यह वारली जनजाति के सरल, सामूहिक और प्रकृति-संगत जीवन को भी दर्शाती है। इन चित्रों में गोलाकार रचनाएँ यह संकेत देती हैं कि वारली लोग समय को एक निरंतर चक्र के रूप में देखते थे। नृत्य करती हुई महिलाओं की आकृतियाँ इस बात का प्रतीक हैं कि उनके जीवन में उत्सव, नृत्य और सामूहिक आनंद का विशेष स्थान था।
शादी के अवसरों पर वारली महिलाएँ अपनी झोपड़ियों की दीवारों पर विशेष चित्र बनाकर उत्सव और प्रसन्नता को दर्शाती थीं। इन दीवार चित्रों को शुभ और मंगलकारी माना जाता था।
वारली कला प्रकृति से गहराई से जुड़ी हुई है। इसमें पौधों, पशुओं और ग्रामीण जीवन के दृश्यों को बड़ी ही सुंदरता से दर्शाया जाता है। इसकी शैली हमें प्राचीन गुफा चित्रों की याद दिलाती है, जिनमें इसी प्रकार की आकृतियों और लय का प्रयोग होता था।
समय के साथ वारली कला ने पारंपरिक दीवारों से बाहर निकलकर कागज़, कपड़े और अन्य माध्यमों पर भी अपनी जगह बना ली है। आज यह कला पूरे भारत में लोकप्रिय है और व्यावसायिक रूप से भी सफल हो चुकी है।
पद्म श्री पुरस्कार (2011) से सम्मानित जीव्या सोम माशे ने वारली चित्रकला को विश्व स्तर पर पहचान दिलाई और इसे एक सांस्कृतिक धरोहर के रूप में संरक्षित करने में अहम भूमिका निभाई।
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समाज का आईना – वर्ली चित्रकला सिर्फ कला नहीं है, यह आदिवासी समाज की सोच, परंपराओं और जीवनशैली का सजीव प्रतिबिंब है।
सामाजिक अनुष्ठान – इसमें शादी-विवाह, सामूहिक नृत्य और अन्य सामाजिक अवसरों को बेहद भावपूर्ण तरीके से दर्शाया जाता है।
एकता का प्रतीक – चित्रों में महिलाओं और पुरुषों को अक्सर वृत्ताकार या सर्पिल आकृतियों में नृत्य करते हुए दिखाया जाता है, जो समुदाय की एकजुटता और जीवन के निरंतर चक्र का प्रतीक है।
प्रकृति से जुड़ाव – खेती, फसल कटाई और शिकार के दृश्य न केवल आजीविका के साधन बताते हैं, बल्कि प्रकृति के साथ सामंजस्य और निर्भरता को भी उजागर करते हैं।
त्योहार और उत्सव – त्योहारों व धार्मिक अनुष्ठानों के चित्र सामूहिक आनंद, आस्था और परंपराओं की जीवंत झलक देते हैं।
सांस्कृतिक संदेश – हर चित्र जनजीवन, समुदाय और प्रकृति के गहरे रिश्ते को कलात्मक और अर्थपूर्ण रूप में सामने लाता है।
निष्कर्ष में, वारली आर्ट न केवल एक कला है, बल्कि यह एक सांस्कृतिक धरोहर है जो महाराष्ट्र की आदिवासी जनजातियों की जीवनशैली और परंपराओं को जीवंत रूप में प्रस्तुत करती है। इसकी सरल रेखाएं और प्राकृतिक सामग्री इसे एक अनूठी और पर्यावरण के अनुकूल कला बनाती हैं।
वारली चित्रकला में निहित गहन भावनाएं और जीवन के विभिन्न पहलुओं का चित्रण इसे विशेष बनाता है। यह कला हमें प्रकृति और मानवता के बीच के संबंधों को समझने में मदद करती है, और इसके माध्यम से हम आदिवासी समाज की समृद्ध संस्कृति और परंपराओं को भी जान सकते हैं। वारली आर्ट की यह यात्रा हमें न केवल भारतीय कला की गहराईयों में ले जाती है, बल्कि हमें एक नई दृष्टि से जीवन को देखने का अवसर भी प्रदान करती है।
वर्ली कला महाराष्ट्र की आदिवासी जनजातियों द्वारा बनाई जाने वाली पारंपरिक चित्रकला है। इसमें सफेद रंग का उपयोग लाल या भूरे रंग की मिट्टी की पृष्ठभूमि पर किया जाता है, और यह जीवन के विभिन्न पहलुओं को दर्शाती है।
वारली पेंटिंग महाराष्ट्र राज्य की पारंपरिक आदिवासी कला है। यह मुख्य रूप से महाराष्ट्र के उत्तरी सह्याद्री रेंज में रहने वाली वारली जनजाति द्वारा बनाई जाती है।
वारली चित्रकला में मुख्य रूप से सफेद रंग का उपयोग होता है, जिसे चावल के पेस्ट और पानी के मिश्रण से बनाया जाता है। यह सफेद रंग लाल या भूरे रंग की मिट्टी की पृष्ठभूमि पर उकेरा जाता है।
वारली चित्रकारी महाराष्ट्र राज्य में उत्पन्न हुई थी। यह कला मुख्य रूप से महाराष्ट्र के उत्तरी सह्याद्री रेंज में रहने वाली वारली जनजाति द्वारा विकसित की गई है।
वारली चित्रकला एक प्राचीन भारतीय कला है जो की महाराष्ट्र की एक जनजाति वारली द्वारा बनाई जाती है। अपनी पुस्तक द पेंटेड वर्ल्ड ऑफ़ द वार्लीस में यशोधरा डालमिया ने दावा किया है कि वर्ली की परंपरा 2500 या 3000 समान युग पूर्व से है।
हाँ, वारली आर्ट बहुत सरल होती है और बच्चे इसे आसानी से सीख सकते हैं क्योंकि इसमें जटिल आकृतियाँ नहीं होतीं।
Authored by, Aakriti Jain
Content Curator
Aakriti is a writer who finds joy in shaping ideas into words—whether it’s crafting engaging content or weaving stories that resonate. Writing has always been her way of expressing herself to the world. She loves exploring new topics, diving into research, and turning thoughts into something meaningful. For her, there’s something special about the right words coming together—and that’s what keeps her inspired.
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