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मीराबाई का नाम भारतीय भक्ति साहित्य में स्वर्ण अक्षरों में लिखा गया है। मीराबाई का जीवन परिचय (Mirabai ka Jivan Parichay), उनकी रचनाएँ, मीराबाई की पदावली की व्याख्या और भगवान श्रीकृष्ण के प्रति उनका अनन्य प्रेम आज भी लोगों को प्रेरणा देते हैं। ऐसे में आपको मीराबाई का जीवन परिचय(Mirabai ka Jivan Parichay) जानना बेहद जरूरी हो जाता है।
मीराबाई 16वीं शताब्दी की महान कृष्ण भक्त और प्रसिद्ध भक्ति कवयित्री थीं। उनका जन्म राजस्थान के मेड़ता नगर में हुआ था। बचपन से ही वे भगवान श्रीकृष्ण की आराधना में लीन थीं और उन्होंने अपना पूरा जीवन उनकी भक्ति को समर्पित कर दिया। विवाह के बाद भी मीराबाई की कृष्ण के प्रति श्रद्धा और अधिक गहराई से प्रकट हुई। उन्होंने अपना अधिकांश समय वृंदावन और द्वारका जैसे पवित्र स्थलों पर भक्ति और साधना में बिताया।
इस ब्लॉग में आपको मीराबाई का जीवन परिचय(Mirabai ka Jivan Parichay), उनका जन्म, मीराबाई का विवाह कब हुआ, मीराबाई की पदावली की व्याख्या, उनका भागती आंदोलन में योगदान तथा उनकी विरासत के बारे में गहराई से जानने को मिलेगा।
विवरण | जानकारी |
नाम | मीराबाई |
अन्य नाम | मीरा, मीराबाई, जशोदा (जन्म नाम) |
जन्म | लगभग 1498, कुडकी, मेवाड़ (वर्तमान राजस्थान) |
मृत्यु | लगभग 1546, द्वारका, गुजरात |
माता का नाम | वीर कुमारी |
पिता का नाम | रतन सिंह |
पति | भोजराज (मेवाड़ के राजकुमार) |
भाषा | अवधी, ब्रजभाषा, राजस्थानी |
क्षेत्र | कविताएँ , कृष्ण भक्ति |
रचनाएँ | राग गोविंद, Govind Tika, Raag Soratha, मीरा का हार, Mira Padavali, Narsi ji Ka Mayara, पायो जी मैंने राम रतन धन पायो |
मीराबाई का जन्म सन् 1498 में राजस्थान के कुड़की गांव (पाली जिले) में हुआ था। उनका परिवार मेड़ता के राजपूत वंश से था। बचपन से ही मीराबाई का झुकाव भगवान श्रीकृष्ण की भक्ति की ओर था। उनकी भक्ति और सरल स्वभाव ने उन्हें भारतीय भक्ति साहित्य का एक अनमोल रत्न बना दिया।
मीराबाई के जन्म के बारे में कई किंवदंतियाँ भी प्रचलित हैं। कुछ लोगों का मानना है कि वे किसी पिछले जन्म में वृंदावन की गोपिका थीं और इस जन्म में भी उन्हें कृष्ण की याद सताती रही।
मीरा बाई की मृत्यु लगभग 1547 ईस्वी के आसपास मानी जाती है।
मीराबाई का विवाह राजपूत परंपरा के अनुसार बहुत कम उम्र में ही हो गया था। Mirabai का विवाह मेवाड़ के राजकुमार भोजराज से हुआ था। भोजराज, महाराणा सांगा के पुत्र थे। यह विवाह लगभग 1516 के आसपास हुआ था, जब मीराबाई बहुत कम उम्र की थीं।
हालाँकि, मीराबाई का विवाह पारंपरिक राजपूत परंपराओं के अनुसार हुआ था, लेकिन उनका हृदय पूरी तरह से भगवान कृष्ण के प्रेम में डूबा हुआ था। शादी के बाद भी, वे कृष्ण भक्ति में डूबी रहीं और अपने पति से अधिक भगवान कृष्ण को अपना सच्चा प्रेमी मानती थीं।
दुर्भाग्य से, विवाह के 5 साल बाद 1521 में उनके पति की मृत्यु हो गई, और उसके बाद मीराबाई ने एक विधवा के रूप में भी कृष्ण भक्ति को ही अपना जीवन बना लिया। उन्होंने सामाजिक बंधनों और परंपराओं की परवाह किए बिना अपने भक्ति मार्ग को चुना।
इतिहास में कुछ जगह ये मिलता है कि मीरा बाई ने तुलसीदास को गुरु बनाकर रामभक्ति भी की। कृष्ण भक्त मीरा ने राम भजन भी लिखे हैं, हालांकि इसका स्पष्ट उल्लेख कहीं नहीं मिलता है, लेकिन कुछ इतिहासकार ये मानते हैं कि मीराबाई और तुलसीदास के बीच पत्रों के जरिए संवाद हुआ था। माना जाता है मीराबाई ने तुलसीदास जी को पत्र लिखा था कि उनके घर वाले उन्हें कृष्ण की भक्ति नहीं करने देते। श्रीकृष्ण को पाने के लिए मीराबाई ने अपने गुरु तुलसीदास से उपाय मांगा। तुलसी दास के कहने पर मीरा ने कृष्ण के साथ ही रामभक्ति के भजन लिखे। जिसमें सबसे प्रसिद्ध भजन है पायो जी मैंने राम रतन धन पायो।
मीराबाई का साहित्यिक परिचय बचपन से ही शुरू हो गया था। लगभग 16वीं शताब्दी में मीराबाई ने अपने भजन और पद लिखने शुरू किए।
मीराबाई की रचनाएँ ब्रज भाषा, राजस्थानी और हिंदी में मिलती हैं। उनकी कविताएँ न केवल आध्यात्मिक बल्कि जीवन के गहरे संदेश भी देती हैं।
मीराबाई का साहित्यिक योगदान भक्ति आंदोलन के लिए बेहद महत्वपूर्ण है। Mirabai ने अपनी कविताओं और पदों के माध्यम से भगवान श्रीकृष्ण के प्रति अपने प्रेम और समर्पण को व्यक्त किया। उनके रचनाओं में सरलता, भक्ति और भावनाओं की गहराई झलकती है।
उनके साहित्य में भक्ति का शुद्ध रूप देखने को मिलता है, जो आज भी लोगों के दिलों को छूता है। मीराबाई की रचनाएँ भारतीय भक्ति साहित्य का एक अनमोल हिस्सा हैं।
मीराबाई के पदों में विरह का वर्णन उनके गहरे भक्ति भाव और श्रीकृष्ण के प्रति उनके अनन्य प्रेम को दर्शाता है। मीराबाई ने अपने जीवन में भगवान कृष्ण को अपना सबकुछ मान लिया था। लेकिन जब उन्हें कृष्ण से अलग होने का अहसास होता था, तो उनके पदों में पीड़ा और विरह की गहरी अनुभूति दिखाई देती है।
मीराबाई के पदों में विरह का भाव इस कदर प्रबल है कि ऐसा लगता है जैसे वे कृष्ण से मिलन की चाह में तड़प रही हैं। उनके पदों में वह कहती हैं:
इसमें वह कृष्ण से प्रार्थना करती हैं कि चाहे जैसे भी हो, उन्हें अपने पास रख लें।
विरह की पीड़ा को व्यक्त करते हुए मीराबाई ने लिखा:
यहां वे स्पष्ट करती हैं कि उनके जीवन का हर क्षण कृष्ण के बिना अधूरा है।
उनके पदों में यह पीड़ा केवल शारीरिक नहीं, बल्कि आत्मिक है। कृष्ण से अलगाव ने उन्हें अंदर से तोड़ दिया था, और यही दर्द उनके पदों में प्रकट होता है। उनकी रचनाएँ यह सिखाती हैं कि सच्ची भक्ति में प्रेम और विरह दोनों का समान महत्व है। मीराबाई के विरह पद आज भी भक्ति साहित्य में अनमोल स्थान रखते हैं।
मीराबाई के विरह की प्रमुख रचनाएं जिनमें मीरा का विरह वर्णन मिलता है, कुछ इस प्रकार हैं:
मीरा का विरह वर्णन उनके आध्यात्मिक सफर का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। श्रीकृष्ण के प्रति उनकी अनन्य भक्ति और उनसे अलगाव की पीड़ा ने उनके जीवन और साहित्य दोनों को गहराई दी। यह विरह केवल एक प्रेमी से बिछड़ने की पीड़ा नहीं थी, बल्कि आत्मा का परमात्मा से मिलन न हो पाने का दर्द था।
मीराबाई ने अपने विरह को एक साधन के रूप में अपनाया, जिससे उनकी आध्यात्मिक उन्नति हुई। उनका मानना था कि विरह के दौरान जो पीड़ा होती है, वह मन को शुद्ध करती है और ईश्वर के करीब ले जाती है। उनके पदों में यह भाव स्पष्ट झलकता है:
यहां वे कहती हैं कि उनके जीवन का हर क्षण श्रीकृष्ण के रंग में डूबा हुआ है, और उनका विरह भी उसी प्रेम का एक रूप है।
विरह ने मीराबाई को आत्मा की गहराई तक ले जाकर ईश्वर के साथ एकात्मकता का अनुभव कराया।
मीराबाई की पदावली की व्याख्या श्री कृष्ण के प्रति मीराबाई के प्रेम को दिखाती है। उनके पदावली में वो सच्चे भाव का प्रेम है, जो एक सच्चे भक्त का अपने भगवान से होता है।
मीराबाई की कविताएँ सिर्फ शब्द नहीं हैं, बल्कि उनके दिल की धड़कन हैं। उनकी कविताओं में ऐसा जादू है जो हर किसी को मोहित कर लेता है। उनकी कविताओं की कुछ खास बातें इस प्रकार हैं:
मीराबाई के पद भारतीय भक्ति काव्य में अत्यंत महत्वपूर्ण माने जाते हैं। उनके कुछ प्रसिद्ध पद इस प्रकार हैं:
कविता:
पायो जी मैंने राम रतन धन पायो।
वस्तु अमोलिक दी मेरे सतगुरु, किरपा कर अपनायो॥
जनम जनम की पूंजी पाई, जग में सभी खोवायो।
खर्चे न खूटे, चोर न लूटे, दिन दिन बढ़त सवायो॥
सत की नाव खेवटिया सतगुरु, भवसागर तर आयो।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर, हरख हरख जस गायो।।
शब्दार्थ
व्याख्या:
इस कविता में मीराबाई कहती हैं कि उन्होंने भगवान श्रीराम के रूप में ऐसा अनमोल खज़ाना पाया है, जिसे न कोई चुरा सकता है और न ही यह कभी समाप्त होता है। यह खज़ाना उनके गुरु की कृपा से मिला है। इस खज़ाने के मिलने से उन्हें ऐसा सुख और संतोष प्राप्त हुआ है, जिसे दुनिया की कोई भी चीज़ नहीं दे सकती। मीराबाई यह भी कहती हैं कि सच्चे गुरु के मार्गदर्शन से उन्होंने संसार रूपी समुद्र को पार कर लिया है।
कविता:
मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरो न कोई।
जाके सिर मोर मुकुट, मेरो पति सोई॥
तात मात भ्रात बंधु, आपनो न कोई।
छाड़ि दई कुल की कानि, कहा करूँ कोई॥
संतन ढिग बैठ बैठ, लोकलाज खोई।
चुनरी के किनारे, मेरे गिरधर लपटोई॥
मीरा के प्रभु गिरधर नागर, हरख हरख जस होई।।
शब्दार्थ
व्याख्या:
इस कविता में मीराबाई श्रीकृष्ण को अपना सब कुछ मानती हैं। वे कहती हैं कि उनके लिए संसार में कोई और नहीं है, न माता, न पिता, न भाई, न कोई संबंधी। उन्होंने अपने कुल और समाज के मान-सम्मान को छोड़कर केवल श्रीकृष्ण को अपनाया है। वे कहती हैं कि संतों की संगति में रहकर उन्होंने समाज की परवाह करना छोड़ दिया और अपनी चुनरी के किनारे श्रीकृष्ण के चरणों में समर्पित कर दिए।
कविता:
अब तो हरि बिन रह्यो न जाए।
सुमिरन करूँ मैं बारम्बार, पल-पल पर घबराए॥
श्याम सखा गिरधर प्यारा, वह तो मन भाए।
जोगिया से प्रीत लगाई, सब जग मुझको धिक्कारे॥
मीरा के प्रभु गिरधर नागर, चरणों में मन लगाए॥
शब्दार्थ
व्याख्या:
इस कविता में मीराबाई कहती हैं कि अब वे भगवान श्रीकृष्ण के बिना एक पल भी नहीं रह सकतीं। उनका मन हर पल कृष्ण के स्मरण में लगा रहता है। वे कहती हैं कि उन्होंने अपनी प्रीत एक साधु (भगवान) से जोड़ ली है, और इसके कारण समाज ने उनकी निंदा की है। लेकिन उन्हें इसकी कोई परवाह नहीं है क्योंकि उनका मन केवल श्रीकृष्ण के चरणों में ही बसा हुआ है।
मीराबाई के भाव पक्ष और कला पक्ष उनके साहित्य की सबसे बड़ी विशेषताएँ हैं, जो उनकी रचनाओं को अद्वितीय बनाती हैं।
मीराबाई के पदों में भावनाओं की गहराई और सच्चाई स्पष्ट झलकती है। उनके भाव पक्ष की मुख्य विशेषताएँ हैं:
मीराबाई की रचनाओं में कला की सुंदरता और शैली की सरलता उनके पदों को प्रभावशाली बनाती है।
मीराबाई ने भक्ति आंदोलन को एक नया आयाम दिया। उन्होंने दिखाया कि भक्ति केवल धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि जीवन जीने का एक तरीका है। उनका योगदान केवल धार्मिक क्षेत्र तक सीमित नहीं था, बल्कि उन्होंने सामाजिक परिवर्तन में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनका भक्ति आंदोलन में योगदान निम्नलिखित बिंदुओं में देखा जा सकता है:
ऐसा माना जाता है कि मीराबाई ने अपने जीवन के अंतिम समय में द्वारका में श्रीकृष्ण की भक्ति में लीन होकर अपना शरीर त्याग दिया। एक कथा के अनुसार, वे श्रीकृष्ण की मूर्ति में समा गईं। हालांकि, 1546 में द्वारका, गुजरात में हुई उनकी मृत्यु का सही विवरण इतिहास में स्पष्ट नहीं है, लेकिन यह जरूर कहा जा सकता है कि उनकी मृत्यु भी उनके भक्ति मार्ग का ही हिस्सा थी।
मीराबाई का जीवन परिचय (Mirabai ka Jivan Parichay) हमें भक्ति, प्रेम और समर्पण की अनमोल सीख देता है। उनकी रचनाएँ, मीराबाई की पदावली की व्याख्या और मीरा का विरह वर्णन, उनके आध्यात्मिक सफर और गहन भावनाओं को उजागर करती हैं। उनके जीवन की घटनाएँ, जैसे मीराबाई का विवाह कब हुआ, समाज की रूढ़ियों को चुनौती देने वाली प्रेरक कहानियाँ हैं। मीराबाई का साहित्य और उनकी भक्ति आज भी हमारी संस्कृति और भक्ति परंपरा का अभिन्न हिस्सा हैं। उनके जीवन और रचनाएँ हमें सच्चे प्रेम और भक्ति का महत्व समझाती हैं।
इस ब्लॉग में आपने मीराबाई का जीवन परिचय (Mirabai ka Jivan Parichay), उनका जन्म, मीराबाई का विवाह कब हुआ, मीराबाई की पदावली की व्याख्या के बारे में जाना, साथ ही अपने मीराबाई की विरासत और भागती आंदोलन में उनके योगदान के बारे में भी जाना।
मीरा बाई का असली नाम जशोदा राव रतन सिंह राठौड़ था।
मान्यता है कि उनका पूर्व जन्म वृंदावन में एक गोपी के रूप में हुआ था। वे राधा की सहेली थीं और मन ही मन भगवान श्रीकृष्ण से प्रेम करती थीं।
सबसे प्रचलित कथा के अनुसार, मीराबाई कृष्ण मंदिर में कृष्ण की मूर्ति के सामने भजन गा रही थीं। एक समय ऐसा आया जब वे मूर्ति में विलीन हो गईं और फिर कभी दिखाई नहीं दीं। लोगों का मानना है कि उन्होंने अपना शरीर त्याग कर कृष्ण में ही समा गई थीं।
मीरा रतन सिंह राठौर की बेटी थीं।
मीराबाई के पदों से पता चलता है कि उनके गुरु रैदास थे।
मीरा बाई की समाधि राजस्थान के चित्तौड़गढ़ किले में स्थित मीरा मंदिर में मानी जाती है। यह मंदिर मीराबाई को समर्पित है, जो एक राजपूत राजकुमारी और भगवान श्रीकृष्ण की अनन्य भक्त थीं। इस भव्य मंदिर का निर्माण राजपूत शासक महाराणा कुंभा द्वारा कराया गया था।
कुछ अन्य मान्यताओं के अनुसार, उनकी समाधि गुजरात के द्वारका में भी बताई जाती है, जहाँ उन्होंने कृष्ण भक्ति में अपना जीवन व्यतीत किया था।
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Authored by, Amay Mathur | Senior Editor
Amay Mathur is a business news reporter at Chegg.com. He previously worked for PCMag, Business Insider, The Messenger, and ZDNET as a reporter and copyeditor. His areas of coverage encompass tech, business, strategy, finance, and even space. He is a Columbia University graduate.
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