Quick Summary
खिलाफत आंदोलन क्या था, यह समझना जरूरी है कि यह 20वीं सदी की शुरुआत में भारत में उभरा एक महत्वपूर्ण राजनीतिक और धार्मिक आंदोलन था। इसका मुख्य उद्देश्य तुर्की के खलीफा की सत्ता की रक्षा करना था। यह आंदोलन 1919 में तब शुरू हुआ जब भारतीय मुसलमानों ने ब्रिटिश सरकार के उस निर्णय का विरोध किया, जिसमें खलीफा की पदवी समाप्त करने की बात कही गई थी।
यह आंदोलन केवल धार्मिक भावना का प्रतीक नहीं था, बल्कि भारत के स्वतंत्रता संग्राम में मुस्लिम समुदाय की सक्रिय भागीदारी भी दर्शाता था। मौलाना मोहम्मद अली, शौकत अली और डॉ. अंसारी जैसे नेताओं ने इसे संगठित किया, वहीं महात्मा गांधी ने इसे असहयोग आंदोलन से जोड़कर राष्ट्रव्यापी बना दिया।
खिलाफत आंदोलन का मूल अर्थ था—तुर्की के खलीफा की धार्मिक सत्ता की रक्षा करना, जिसे इस्लामी जगत का आध्यात्मिक प्रमुख माना जाता था। प्रथम विश्व युद्ध के बाद जब ब्रिटिश और सहयोगी देशों ने तुर्की साम्राज्य को विभाजित करने और खलीफा की सत्ता को समाप्त करने की योजना बनाई, तो भारतीय मुसलमानों की धार्मिक भावनाएँ आहत हुईं।
इस आंदोलन का उद्देश्य था:
Khilafat Andolan का उद्देश्य धार्मिक भावनाओं की रक्षा के साथ भारत में राजनीतिक चेतना को भी जगाना था।
“खलीफा” अरबी शब्द है, जिसका अर्थ है “उत्तराधिकारी”। इस्लाम में खलीफा को पैगंबर मुहम्मद का प्रतिनिधि माना जाता है, जो धार्मिक और राजनीतिक नेतृत्व करता है। तुर्की का खलीफा, उस्मानी साम्राज्य के अंतर्गत, इस्लामी दुनिया का धार्मिक प्रमुख था। प्रथम विश्व युद्ध के बाद जब खलीफा की सत्ता ख़त्म होने लगी, तो भारतीय मुसलमानों में असंतोष फैला और khilafat andolan की शुरुआत हुई।
खिलाफत आंदोलन के प्रमुख कारणों में प्रथम विश्व युद्ध का प्रभाव और तुर्की के खलीफा के प्रति भारतीय मुसलमानों की गहरी निष्ठा शामिल थे।
भारतीय मुसलमानों ने तुर्की के खलीफा को इस्लाम का धार्मिक नेता माना। जब ब्रिटिश सरकार ने खलीफा की सत्ता खत्म करने की कोशिश की, तो इसे धार्मिक अधिकारों पर हमला माना गया। इसी भावना से khilafat andolan शुरू हुआ, जो धार्मिक अस्मिता की रक्षा और ब्रिटिश विरोध का प्रतीक बन गया।
प्रथम विश्व युद्ध में तुर्की की हार से खलीफा की सत्ता कमजोर पड़ी, जिससे भारतीय मुसलमानों की धार्मिक भावनाएं आहत हुईं। इसे धार्मिक पहचान और एकता पर संकट मानते हुए उन्होंने खिलाफत आंदोलन की शुरुआत की।
प्रथम विश्व युद्ध में ब्रिटिशों ने खलीफा की रक्षा का वादा किया था, लेकिन बाद में उसे कमजोर करने की नीति अपनाई। इस विश्वासघात ने मुसलमानों को आक्रोशित किया और खिलाफत आंदोलन को बल मिला।
खिलाफत आंदोलन कब हुआ, यह जानना महत्वपूर्ण है कि भारत में इसकी शुरुआत 1919 में हुई थी। यह आंदोलन मुख्य रूप से मुस्लिम समुदाय द्वारा तुर्की के खलीफा की सत्ता की रक्षा के लिए आरंभ किया गया था, लेकिन जल्द ही यह एक व्यापक राष्ट्रीय आंदोलन बन गया।
वर्ष | प्रमुख घटना | विवरण |
1919 | खिलाफत समिति की स्थापना | दिल्ली में अली बंधुओं (मौलाना मोहम्मद अली और शौकत अली) ने आंदोलन की नींव रखी। |
1920 | असहयोग आंदोलन से गठजोड़ | महात्मा गांधी ने खिलाफत आंदोलन को असहयोग आंदोलन से जोड़ा, जिससे इसे राष्ट्रीय स्तर पर व्यापक समर्थन मिला। |
1922 | चौरी-चौरा कांड | उत्तर प्रदेश के चौरी-चौरा में हिंसा के चलते गांधीजी ने आंदोलन को वापस ले लिया, जिससे खिलाफत आंदोलन भी धीरे-धीरे समाप्त हो गया। |
खिलाफत आंदोलन ने भारतीय राजनीति को गहराई से प्रभावित किया और स्वतंत्रता संग्राम की दिशा को नया मोड़ दिया। इसके दो प्रमुख राजनीतिक प्रभाव निम्नलिखित हैं:
खिलाफत आंदोलन का धार्मिक और सामाजिक प्रभाव गहरा लेकिन दोधारी था। एक ओर इसने सांप्रदायिक एकता का दुर्लभ अवसर पैदा किया, वहीं दूसरी ओर भविष्य में सांप्रदायिक तनाव की नींव भी रख दी।
खिलाफत आंदोलन ने भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में नेताओं की छवि और भूमिका को गहराई से प्रभावित किया। यह आंदोलन केवल धार्मिक भावना से जुड़ा नहीं था, बल्कि इसने भारत के स्वतंत्रता संग्राम को नया आयाम दिया।
खिलाफत आंदोलन भारत के स्वतंत्रता संग्राम का एक महत्वपूर्ण अध्याय था। इसने पहली बार धार्मिक मुद्दे को राष्ट्रीय राजनीति से जोड़ा और हिंदू-मुस्लिम एकता की मिसाल पेश की।
जब khilafat andolan शुरू हुआ, तो गांधीजी ने इसे सिर्फ मुसलमानों का धार्मिक मुद्दा नहीं माना, बल्कि उसे भारत की स्वतंत्रता की लड़ाई से जोड़ने का फैसला किया। उनका मानना था कि अगर हिंदू और मुस्लिम एकजुट होकर अंग्रेजों का विरोध करें, तो स्वतंत्रता की राह आसान हो सकती है। इस सोच के तहत उन्होंने न केवल आंदोलन का समर्थन किया, बल्कि स्वयं इसे नेतृत्व भी दिया।
गांधीजी ने खिलाफत आंदोलन के दौरान भी अपने प्रमुख हथियार — सत्याग्रह और अहिंसा — को आगे रखा। उन्होंने इस आंदोलन को एक शांतिपूर्ण विरोध के रूप में प्रस्तुत किया, जिससे आम जनता को भी इससे जोड़ना आसान हुआ। इससे सत्याग्रह की अवधारणा को राष्ट्रीय स्तर पर पहचान मिली और अहिंसात्मक आंदोलन की जड़ें और मजबूत हुईं।
Khilafat andolan को देशभर में व्यापक जनसमर्थन मिला, विशेषकर मुस्लिम समुदाय ने इसे धार्मिक आस्था से जोड़कर पूरी निष्ठा के साथ अपनाया। गांधीजी के जुड़ने के बाद हिंदू समाज का एक बड़ा वर्ग भी इस आंदोलन का हिस्सा बना। हालांकि, कुछ बुद्धिजीवी वर्गों और शिक्षित मध्यमवर्गीय लोगों ने इसका विरोध भी किया। उनका मानना था कि धार्मिक मुद्दों को राष्ट्रीय राजनीति से जोड़ना उचित नहीं है।
खिलाफत आंदोलन के प्रभाव ने ब्रिटिश सरकार को चिंतित कर दिया था। सरकार ने आंदोलन को दबाने के लिए दमनकारी नीतियाँ अपनाईं—नेताओं को गिरफ़्तार किया गया, सभाओं पर प्रतिबंध लगाए गए, और प्रेस की स्वतंत्रता सीमित की गई। इसके बावजूद, यह आंदोलन ब्रिटिश शासन के खिलाफ एक संगठित जनप्रतिरोध के रूप में सामने आया, जिसने स्वतंत्रता संघर्ष को नई ऊर्जा दी।
मौलाना मोहम्मद अली khilafat andolan के सबसे प्रमुख चेहरों में से थे। उन्होंने ब्रिटिश शासन के खिलाफ तीव्र विरोध जताया और मुसलमानों की धार्मिक भावनाओं को राष्ट्रीय आंदोलन से जोड़ा। उनका लेखन और भाषण आंदोलन को दिशा देने में बेहद प्रभावशाली रहा।
मोहम्मद अली के भाई, शौकत अली भी इस आंदोलन के अगुआ नेताओं में शामिल थे। दोनों भाइयों ने मिलकर खिलाफत समिति की स्थापना की और देशभर में आंदोलन को फैलाया। वे मस्जिदों, सभाओं और प्रेस के माध्यम से जनता को जागरूक करने में सक्रिय रहे।
हालाँकि गांधीजी स्वयं हिंदू थे, लेकिन उन्होंने खिलाफत आंदोलन को समर्थन देकर हिंदू-मुस्लिम एकता की मिसाल पेश की। उनका उद्देश्य इसे राष्ट्रीय आंदोलन से जोड़ना और असहयोग आंदोलन को मजबूत बनाना था। उनके नेतृत्व ने आंदोलन को अखिल भारतीय स्वरूप दिया।
डॉ. अंसारी एक शिक्षित और प्रभावशाली मुस्लिम नेता थे, जिन्होंने आंदोलन को संगठित करने में अहम भूमिका निभाई। उन्होंने राजनीतिक मंचों पर मुस्लिम हितों की मजबूती से वकालत की और गांधीजी के साथ मिलकर सांप्रदायिक एकता को बढ़ावा दिया।
919 में 17 अक्टूबर को पूरे भारत में खिलाफत दिवस मनाया गया। इस दिन मुसलमानों ने अपनी दुकानों को बंद रखा और सभाओं में भाग लेकर तुर्की के खलीफा के प्रति समर्थन जताया। यह पहली बार था जब धार्मिक मुद्दे पर राष्ट्रीय स्तर पर संगठित विरोध दर्ज किया गया।
Khilafat andolan ने मुस्लिम लीग और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के बीच संवाद और सहयोग की एक नई शुरुआत की। इस आंदोलन ने गांधीजी और मुस्लिम नेताओं को एक मंच पर लाकर हिंदू-मुस्लिम एकता की दिशा में एक ऐतिहासिक प्रयास किया।
ब्रिटिश सरकार द्वारा तुर्की को युद्ध में हराने के बाद खलीफा की सत्ता को समाप्त करना भारतीय मुसलमानों को अस्वीकार्य था। इसके विरोध में देशभर में धरने, जुलूस, और सभाएं आयोजित की गईं। खिलाफत आंदोलन के प्रभाव ने ब्रिटिश नीतियों को लेकर जनता में आक्रोश को तीव्र किया और असहयोग की भावना को मजबूती दी।
खिलाफत आंदोलन भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का एक महत्वपूर्ण अध्याय था, जिसने धार्मिक भावना और राजनीतिक संघर्ष को एक मंच पर लाकर राष्ट्रीय आंदोलन को मजबूती दी। गांधीजी के सहयोग से यह आंदोलन असहयोग आंदोलन से जुड़ा और हिंदू-मुस्लिम एकता का प्रतीक बना।
हालांकि यह एकता स्थायी नहीं रही, फिर भी आंदोलन ने युवाओं, बुद्धिजीवियों और आम जनता में राजनीतिक चेतना का संचार किया। इसके माध्यम से भारतीय मुसलमानों की भागीदारी बढ़ी और ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ व्यापक विरोध का आधार तैयार हुआ। इतिहास में यह आंदोलन एक प्रेरणास्रोत के रूप में याद किया जाता है, जिसने आज़ादी की राह को मजबूत किया।
खिलाफत आंदोलन की शुरुआत मोहम्मद अली और शौकत अली (जिन्हें आमतौर पर अली बंधु कहा जाता है), अबुल कलाम आज़ाद, हसरत मोहानी और अन्य नेताओं के नेतृत्व में हुई थी।
खिलाफत आंदोलन एक ऐसा आंदोलन था जिसकी शुरुआत अली बंधुओं—शौकत अली और मोहम्मद अली—ने की थी।
(i) इस आंदोलन का उद्देश्य प्रथम विश्व युद्ध के बाद मुसलमानों की वफादारी उस्मानी साम्राज्य के प्रमुख खलीफा के प्रति प्रकट करना था।
(ii) यह आंदोलन खलीफा को बचाने के लिए शुरू किया गया था, जिसे ब्रिटिश सरकार ने प्रथम विश्व युद्ध के बाद हटा दिया था।
गांधीजी ने खिलाफत आंदोलन का समर्थन इसलिए किया क्योंकि वे इसे हिंदू-मुस्लिम एकता को मजबूत करने का एक महत्वपूर्ण अवसर मानते थे। उनका मानना था कि यदि मुस्लिमों को हिंदुओं के साथ मिलकर ब्रिटिश उपनिवेशवाद के खिलाफ संगठित किया जाए, तो स्वतंत्रता आंदोलन और अधिक सशक्त और एकजुट हो सकता है।
खिलाफत आंदोलन उस समय कमजोर पड़ गया जब 1922 में मुस्तफा कमाल अतातुर्क ने पश्चिमी एशिया माइनर से यूनानियों को हरा दिया और उसी वर्ष तुर्की के सुल्तान महमूद VI को पद से हटा दिया। अंततः 1924 में जब अतातुर्क ने खलीफा पद को पूरी तरह से समाप्त कर दिया, तब यह आंदोलन पूरी तरह खत्म हो गया।
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Authored by, Amay Mathur | Senior Editor
Amay Mathur is a business news reporter at Chegg.com. He previously worked for PCMag, Business Insider, The Messenger, and ZDNET as a reporter and copyeditor. His areas of coverage encompass tech, business, strategy, finance, and even space. He is a Columbia University graduate.
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